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कविता

कमीज़

महेश वर्मा


खूँटी पर बेमन पर से टँगी हुई है कमीज़
वह शिकायत करते-करते थक चुकी
यही कह रहीं उसकी झूलती बाँहें

उसके कंधे घिस चुके हैं पुराना होने से अधिक अपमान से
स्याही का एक पुराना धब्बा बरबस खींच लेता ध्यान

उसे आदत-सी हो गई है बगल के
कुर्ते से आते पसीने के बू की
उसे भी सफाई से अधिक आराम चाहिए
इस सहानुभूति के रिश्ते ने आगे आकर ख़त्म कर दी है उनकी दुश्मनी

लट्टू के प्रकाश के इस कोण से
उसकी लटक आई जेब में भर आए अँधेरे की तो कोई बात ही नहीं

 


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